ग़ज़ल

अनपढे़ अखबार सी है शिन्दगी
खाँसते बीमार सी है शिन्दगी।
शिन्दगी का दोस्तों विश्वास क्या
रेत की दीवार सी है शिन्दगी।
भाग्य में जिसके नहीं है कोई सुर
ऐसे टूटे तार सी है शिन्दगी।
वक़्त पड़ने पर जला सकती चमन
दहकते अंगार सी है शिन्दगी।
कौरवों के छद्म ने जिसको छला
पांडवों की हार सी है शिन्दगी।
शिन्दगी तो है अभावों का जुलूस
दर्द के त्यौहार सी है शिन्दगी।
बाजरे की एक रोटी के लिये
भटकते परिवार सी है शिन्दगी।
न मनोरंजन न आकर्षण कोई
आखिरी इतवार सी है शिन्दगी।
उसको पछताना पड़ेगा एक दिन
जिसकी रचनाकार सी है शिन्दगी। ु